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Tuesday, 30 April 2024

क्या तुम

 क्या तुम कभी मेरी 

सुबह का हिस्सा बन पाओगे 


जल्दी- जल्दी तैयार होते 

मेरे अदना सवाल सुन पाओगे 


वो चाय की चुस्कियों के बीच की खामोशियाँ 

उनमें छिपी हज़ार बातों में अपनी आवाज़ मिलाओगे 


 क्या तुम कभी मेरी 

सुबह का हिस्सा बन पाओगे ?


चलो, सुबह तो व्यस्त होती हैं 

शामों के बारे में सोचना 


थक कर लौटते हो जब 

घर के बारे में सोचना 


घर की सारी बातें बेमानी नहीं होती 

सच है, ये बातें रूमानी नहीं होती 

फिर भी होती हैं  जिन्दगी का अहम् हिस्सा


क्या कभी तुम मेरी घरेलु बातें सुन पाओगे ?


क्या कभी तुम मेरी जिन्दगी का हिस्सा बन पाओगे ?


क्या कभी?




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मंज़िल

 क्या होगा जो मंज़िल पे पहुँच गिर जाओगे ?

अपनी मेहनत का कुछ भी नहीं पाओगे l


गुज़र जायेगा परीक्षा का समय 

ऐसे भी , वैसे भी 

जो अपनी जान लगाओगे

तो बाद में नहीं पछताओगे 


कौन जाने तुम क्या हो? 

तुम भी क्या जानो 

मौका मिले तो 

तुम क्या कुछ कर जाओगे 


तुम बने अपनी मेहनत के बल पर 

अडिग रखो इस विश्वास को 

खुद पर रखोगे संशय 

तो बिन ठोकर गिर जाओगे 


दुनिया तो हँसेगी ही 

ऐसे भी और वैसे भी 

तुम हारे तो तुम पर 

और जीते तो तुम संग 


क्या होगा जो मंज़िल पे पहुँच गिर जाओगे ?

अपनी मेहनत का कुछ भी नहीं पाओगे l



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Friday, 6 October 2023

कविता कैसी होती है

 कविता कैसी होती है

ये बच्चों जैसी होती है -

बेबाक I

कभी मिल जाए मौका

 खुद से मिलने का, 

खुद को पढ़ने का

 और हम लिख लें 

वो पढ़ा हुआ

जो कभी कोई न पढ़ पाया I


कविता कैसी होती है

ये बच्चों जैसी होती है -

गीली मिटटी जैसी I

जैसे बच्चा जन्म से ही 

मां से जुड़ जाता है

कविता का अंकुर भी 

मस्तिष्क में रह जाता है

फिर उसे विचारों में सोच कर

शब्दों में मींज कर हम लिख देते है I


कविता कैसी होती है

ये बच्चों जैसी होती है -

पहेली जैसी  I

नवागंतुक शिशु की तरह 

रोमांचित और  विस्मित करती है -

क्या ये मेरा ही अंश  है ?

जो अब तक छिपा रहा

और किसी से तो क्या 

खुद से ही न कहा गया  I


कविता कैसी होती है

ये बच्चों जैसी होती है -

प्यारी सी   I

जैसे शिशु सहज ही 

प्यार पा लेता है

कविता भी जन्म लेते ही

एक रिश्ता कायम कर लेती है

कभी विस्मय का 

कभी विषाद  का  I



कविता कैसी होती है

ये बच्चों जैसी होती है -

बिगड़ी हुई  I

कभी-कभी बिगड़ कर 

जिद करके बैठ जाती है

विचारों के घोर मंथन पर ही

यह सामने आती है

जितनी बार सोचो इसको 

यह और निखरती जाती है  I


कविता कैसी होती है

ये बच्चों जैसी होती है -

नित दिन बढ़ने वाली  I

जैसे बच्चे बड़े हो जाते हैं

यह भी यौवन पा लेती है

फिर प्रसिद्धि पा कर

अजर- अमर हो जाती है 

मेहनत इस पर की हुई 

व्यर्थ नहीं जाती है

समय आने पर यह अपना 

रंग दिखाती है I


कविता कैसी होती है

ये बच्चों जैसी होती है I


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Friday, 9 December 2022

परदेसी नदी

 इस अनजान शहर में 

ये नदी ही है साथ मेरे 

दूर देश से आती है 

दूर देश को जाती है 

इस शहर से गुजरती हुई

मुझको कुछ सुकून दे जाती है 


परदेस में परदेसी नदी 

मुझको अपनी सी लगती है 

शायद क्योंकि मेरी तरह ही 

ये कहीं नहीं ठहरती है


इसकी लहरों जैसे ही 

रहता मेरा मन भी बेकल 

सबको लगती ये अपनों सी

इसे मिलता नहीं अपनापन 


यात्रा हम दोनों की है  एक-सी 

लगता है जैसे - 

बेफिक्र से बहते हम दोनों समय के संग 


बस अंतर इतना ही है 

भूत, वर्तमान और भविष्य में 

यह एक साथ है रह पाती 

और मैं इस त्रिकोण का 

 गणित  नहीं समझ  पाती l



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Monday, 26 September 2022

अनचाही बेटी

 हाँ माना 

बेटी हूँ अनचाही 

पर हूँ तो तुम्हारी 

तुम्हारे ही गर्भ से जन्म लिया 


हाँ माना 

कर्णधार था कोई विदेशी

रचा जिसने मुझे तलवार सा 

काटने को बांटने को 

उस भारत को 

जो विश्व अपार था 


" कैसे इस संस्कृति को नष्ट कर दूँ? "

उसके सम्मुख यह प्रश्न विचार था 


हाँ उसने ही स्थापित किया था मुझको 

पर मेरी रगों में रक्त तुम्हारा है 


मुझ नवजात को संभाला तुमने 

विदेशी बोली की छोटी, सौतेली 

बहन बना कर पाला तुमने 

सशक्त किया मेरे जीवन को

महादेवी और निराला ने 


हो गयी हूँ अब 75 बरस की 

क्या अब घर से निकालोगे ?

क्या मेरे आभाव में बिना विघ्न के

नव संस्कृति को संभालोगे ? 

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Friday, 25 December 2020

अंतिम संवाद

 चौदह बरस चली संग तिहारे

अब मैं राम न आऊँगी

अकेले वन में जन्मी संतान तुम्हारी

अब मैं राम न आऊँगी। 


वन में गयी महलों को छोड़ कर

उपवन में रही पूरा एक बरस

आए तो तुम मुझे छुड़ाने

लाये भी नगरी तुम्हारी

पर फिर से छोड़ दिया मुझे वन में

अब मैं राम न आऊँगी। 


अखंड है  वंश तुम्हारा,राज तुम्हारा

पर सच है  यह भी-

नहीं मिटेगा कलंक हमारा,

चाहे जितना मुझे बुलाओ

अब मैं राम न आऊँगी। 


रूठ गया मन इस जीवन से

मुक्त करो अब इस बंधन से

अब न होगा मेल हमारा

मैं धरती में समाऊँगी 

अब मैं राम न आऊँगी। 

------------

छोड़ गयी  तुम संगिनी

बांटा था जिससे जीवन को

तुम्हें भेज कर वन में, मैंने भी

त्यागा था राजकीय जीवन को।


दुखा दिया हृदय तुम्हारा

जग की रीत निभाने को,

भेजे थे साथ ही प्राण भी अपने 

भेजा था जब वन में तुमको।


निर्जीव हूँ उसी क्षण से

जब छूटा था साथ तुम्हारा,

तो अब मैं भी जाता हूँ-

पहले ढूंढा था तुमको वन में

अब खुद को ढूँढने जाता  हूँ।


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Monday, 9 November 2020

किचन और कविता

आन्धियों सी उड़ती 
बंद बरनियों में,
चेहरा देखकर
चमकती कड़छियों में,

बिंदी को बना कर
चकले - सी गोल या 
कार के पहियों- सी,

गुन्धे आटे के रंग से सजकर,
तवे- सा काला टीका लगा कर,
लाल-मिर्च के रंग सा -
सिंदूर लगाती हूँ। 

अलग अलग डिब्बों में
जिंदगी को जीकर,
काँच के गिलास-सा 
मान उठाती हूँ।

कढ़ाइयों से सीख लेती हूँ
आग में तप कर  भी न जलना।
गुस्सा जब तेल सा खौले,
अपना ही अभिमान  तल लेना।

फिर मुस्कान सजा कर
नए बर्तनों-सी खुद पर,
चल पड़ती हूँ-
बिंदी-सा गोल स्टियरिंग घुमाकर।

इंजन आवाज़ करता है
मन के झंजावात-सी ,
जैसे दाल  में छौंक लगा हो।

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Friday, 28 August 2020

क्या कभी

क्या कभी

तुम मेरी 

सुबह का हिस्सा 

बन पाओगे


जल्दी जल्दी में

मेरे अदना से

सवाल सुन पाओगे 


वो चाय की 

चुस्कियों के 

बीच की खमोशियां-

उनमें छुपी 

हज़ार बातों में 

अपनी आवाज़ 

मिलाओगे?


क्या कभी

तुम मेरी 

सुबह का हिस्सा 

बन पाओगे

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सुबह तो बहुत

व्यस्त होती हैं


शामों के बारे में सोचना

थक कर लौटते हो जब

घर के बारे में सोचना

घर की सारी बातें

बेमानी नहीं होती

सच है ये बातें

रूमानी नहीं होती

फिर भी होती हैं 

जिंदगी का अहम हिस्सा


क्या कभी 

तुम मेरी 

घर की बातों का

हिस्सा बन पाओगे


क्या कभी

 तुम मेरी

जिंदगी का 

हिस्सा बन पाओगे?

क्या कभी ? 


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Friday, 20 September 2019

थप्पड़ का महत्व


जब भी बचपन में कोई गलती करते थे तो सबसे पहले थप्पड़ ही पड़ता था और हमारी पीढ़ी तो बिना बात के भी बहुत पिटी  है। कभी टीचर से, कभी पापा-मम्मी से। मुझे मम्मी के थप्पड़ उतने याद नहीं जितनी उनके पड़ने की धमकियां। 
मम्मी का डायलॉग- " एक थप्पड़ पड़ेगा तो  सब ठीक हो जाएगा " , यही है इस निबंध का मूल।  

चेतावनी : इस निबंध को केवल आनंद प्राप्त करने के लिए पढ़ें
इसमें बताये गए उपायों का इस्तेमाल आज -कल वर्जित है। 
ऐसा करने पर परिणामों के जिम्मेवार आप खुद होंगे। 

थप्पड़ का महत्व


किसी महान आत्मा ने कहा है-


"थप्पड़ खाये तो ज्ञानी बने
पिज़्ज़ा खाये तो मूर्ख,
डांट पिये तो ज़िंदगानी बने
कैम्पा पिये तो धूर्त ।"


आज का युग मार -पिटाई का युग है । इस काल में थप्पड़,लातों , मुक्कों और गालियों का बहुत महत्व है। इनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है- थप्पड़ का। रण - क्षेत्र हो या गृह-युद्ध क्षेत्र, थप्पड़ सब ओर ही समान रूप से प्रचलित है। जब पति या पत्नी एक-दूसरे पर हाथ उठाते हैं तो जबड़े पर पहला प्रहार होता है, थप्पड़ का। जब कोई लड़का किसी लड़की को तंग करता है तो उसका भी जवाब होता है- थप्पड़। फिल्मों में भी इसका भरपूर प्रयोग होता है। इसकी लोकप्रियता का अनुमान, ऐसे सीन पर थिएटर में बजने वाली तालियों की गूंज से, लगाया जा सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि थप्पड़ एक मजबूत स्थिति में खड़ा हो कर अन्य अस्त्रों-शस्त्रों को ललकार रहा है।
थप्पड़ के कई रूप प्रचलित हैं। इन में सबसे ऊंचा स्थान है चाँटे का। चांटे के बारे में दार्शनिकों के अलग-अलग मत हैं । चाँटा कमेटी के श्री चाँटू लाल का मत है- 
" जब थप्पड़ गाल पर पड़ता है तो उसे चांटे का नाम दिया जाता है.. " 
दूसरी ओर, श्री थपेड़ूमल के अनुसार -
" जब कोई स्त्री पुरुष को थप्पड़ मारे, तभी उसे चांटे का नाम देना चाहिए । "


चाँटा शब्द सुनने में चटपटा - सा लगता है और जब यह गाल पर पड़ता है तो गालों की  रंगत देखते ही बनती है। चाहे कुछ भी कहिए थप्पड़ या/और चाँटा है बहुत काम की चीज़। किसी को भी पीछे से मार कर भाग जाइए, पिटने वाला ढूँढता रह जाएगा पर पीटने वाला नहीं मिलेगा।
यदि आज सेनाएँ और आतंकवादी बमों और स्टेंगनों को छोड़ कर थप्पड़ को अपना लें तो प्रदूषण की समस्या काफी हद तक हल हो जायेगी। थप्पड़ किसी की ज़िंदगी बना भी सकता है और बिगाड़ भी सकता है। किसी बच्चे को गलती पर थप्पड़ मारो तो वह सुधर जाएगा और यदि बिना बात के मारो तो वह बिगड़ जाएगा। कान खींच कर थप्पड़ मारने से बुद्धि चैतन्य होती है, यह एक वैज्ञानिक सत्य है।
आज इस संसार में फिर एक क्रांति की आवश्यकता है जो ‘थप्पड़वाद’ के नाम से जानी जाएगी। विश्व की कई समस्याएँ थप्पड़ मारते ही हल हो जाएँगी। आज जरूरत है एक ही नारे की-
'
थप्पड़वाद – जिंदाबाद'
'
थप्पड़ खाओ और खिलाओ,
मारते-खाते ज़िंदादिल बन जाओ'
विश्व में क्रांति तभी आएगी जब थप्पड़ खाने- खिलाने के लिए पार्टियां होंगीपाँच सितारा होटलों में।
संक्षेप में इतना कहा जा सकता है कि विकट से विकट समस्या का हल है- थप्पड़।


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Wednesday, 18 September 2019

वो तालाब गुम हो गया


हमने की थी जहाँ
पिछले साल
छठ- पूजा
वो तालाब गुम हो गया।

कुछ लोग कहते हैं
कि वो है अभी भी
उन ऊँची इमारतों के पीछे
जिनको बनाने के लिए
पाटी गई थी तालाब की जमीन ।

वह अब सड़क से दिखता नहीं
मैंने भी जा कर देखा वहाँ
बिखरा पाया कचरा
जैसे बिखरा है हर जगह
अरावळी में ।

पर फिर भी कुछ ळोग कहते हैं
कि वो तालाब अब भी है
वहीं कहीं ,
छुप गया है शायद
बचाने  के लिए अपने अस्तित्व को।

कुछ लोगों ने उसे जिंदा रखा है
कागजों में,फाइळों में,
और  कुछ ने
अपनी मीठी यादों का
हिस्सा बना कर।

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Saturday, 14 September 2019

मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती




PHOTO COURTESY: FLICKR

बचपन
मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती
इसीलिए अभी तक स्वयं में
समेटे हूँ
तुम्हारी आवाज़ , क्रियाकलाप 
किन्तु अब इन भावनाओं को बाहर लाना
मुझे शोभा नहीं देता
जानते हो क्यूँ ?
क्योंकि तुम्हें मैं बहुत पीछे
छोड़ आई हूँ
तुम्हारी पावन धारा को
एक अंजान सागर में मोड़ आई हूँ
वह अंजान सागर और कुछ नहीं
वही है जो वर्तमान है
जो सागर सा विशाल है
फैला चक्षु सम्मुख
किन्तु इसमें तुम्हारा
कोई अंश नहीं
कोई उमंग नहीं
कोई लहर नहीं
किन्तु फिर भी
मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती ।


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क्या तुम

 क्या तुम कभी मेरी  सुबह का हिस्सा बन पाओगे  जल्दी- जल्दी तैयार होते  मेरे अदना सवाल सुन पाओगे  वो चाय की चुस्कियों के बीच की खामोशियाँ  उनम...