Monday 9 November 2020

किचन और कविता

आन्धियों सी उड़ती 
बंद बरनियों में,
चेहरा देखकर
चमकती कड़छियों में,

बिंदी को बना कर
चकले - सी गोल या 
कार के पहियों- सी,

गुन्धे आटे के रंग से सजकर,
तवे- सा काला टीका लगा कर,
लाल-मिर्च के रंग सा -
सिंदूर लगाती हूँ। 

अलग अलग डिब्बों में
जिंदगी को जीकर,
काँच के गिलास-सा 
मान उठाती हूँ।

कढ़ाइयों से सीख लेती हूँ
आग में तप कर  भी न जलना।
गुस्सा जब तेल सा खौले,
अपना ही अभिमान  तल लेना।

फिर मुस्कान सजा कर
नए बर्तनों-सी खुद पर,
चल पड़ती हूँ-
बिंदी-सा गोल स्टियरिंग घुमाकर।

इंजन आवाज़ करता है
मन के झंजावात-सी ,
जैसे दाल  में छौंक लगा हो।

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4 comments:

  1. Evocative outpouring of a woman. Profound imagery. Loved it. Congratulations.

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  2. Evocative outpouring of a woman. Profound imagery. Loved it. Congratulations.

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