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Friday, 25 December 2020

अंतिम संवाद

 चौदह बरस चली संग तिहारे

अब मैं राम न आऊँगी

अकेले वन में जन्मी संतान तुम्हारी

अब मैं राम न आऊँगी। 


वन में गयी महलों को छोड़ कर

उपवन में रही पूरा एक बरस

आए तो तुम मुझे छुड़ाने

लाये भी नगरी तुम्हारी

पर फिर से छोड़ दिया मुझे वन में

अब मैं राम न आऊँगी। 


अखंड है  वंश तुम्हारा,राज तुम्हारा

पर सच है  यह भी-

नहीं मिटेगा कलंक हमारा,

चाहे जितना मुझे बुलाओ

अब मैं राम न आऊँगी। 


रूठ गया मन इस जीवन से

मुक्त करो अब इस बंधन से

अब न होगा मेल हमारा

मैं धरती में समाऊँगी 

अब मैं राम न आऊँगी। 

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छोड़ गयी  तुम संगिनी

बांटा था जिससे जीवन को

तुम्हें भेज कर वन में, मैंने भी

त्यागा था राजकीय जीवन को।


दुखा दिया हृदय तुम्हारा

जग की रीत निभाने को,

भेजे थे साथ ही प्राण भी अपने 

भेजा था जब वन में तुमको।


निर्जीव हूँ उसी क्षण से

जब छूटा था साथ तुम्हारा,

तो अब मैं भी जाता हूँ-

पहले ढूंढा था तुमको वन में

अब खुद को ढूँढने जाता  हूँ।


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