Sunday 12 February 2017

सब कुछ

सब कुछ



सब कुछ ही तो चाहते हैं हम
इच्छाएं जानती नहीं ,बांधों में रहना
नहीं सहना, नहीं सहना
आत्मा करती चीत्कार ,
हिलोरें मारता भावनाओं का हूजूम
चाहता है रौंदना वो सब कुछ
जो आता है
हमारे और हमारी इच्छाओं के बीच-
फिर सोच विचार को कौन पूछता
जब आवेश का समंदर भिगो जाता
डुबो जाता वो सब कुछ
जो अब तक हासिल किया
लहरें भिगो देती सर से पाँव तक

और जब ज्वार उतरता
ले जाता साथ बहा
वो सब कुछ जो अब तक
जरूरी था जीने के लिए
समाज में रहने के लिए

खो कर सब कुछ क्यों दिल रोता
येही तो चाहता था
 पाना सब कुछ
देखना सब कुछ
छूना सब कुछ
आग -पानी एक साथ
जमीन -आसमान एक साथ
शिखर - सतह एक साथ

सब कुछ!
जो था परस्पर विरोधी
इसी ने तो चाहा था
पाना एक साथ।

Second born

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